वन भूमि पर चर्च निर्माण विवाद डीएफओ का खंडन अधूरा ,वन विभाग और वन विकास निगम की दोहरी व्यवस्था से जवाबदेही पर उठे सवाल?

वन भूमि पर चर्च निर्माण विवाद डीएफओ का खंडन अधूरा ,वन वन विभाग और वन विकास निगम की दोहरी व्यवस्था से जवाबदेही पर उठे सवाल? वन भूमि पर चर्च निर्माण की खबरों को लेकर उठे विवाद ने नया मोड़ ले लिया है।

कवर्धा वनमंडल अधिकारी (डीएफओ) निखिल अग्रवाल ने खंडन जारी करते हुए कहा कि वनभूमि पर अवैध रूप से किसी चर्च अथवा प्रार्थना सभा का निर्माण नहीं हो रहा और इस संबंध में प्रसारित खबरें पूरी तरह से भ्रामक एवं आधारहीन हैं।लेकिन जांच में सामने आई हकीकत यह है कि जिस जमीन पर निर्माण हुआ है, वह पहले सामान्य वनमंडल के अधिकार क्षेत्र में थी और बाद में उसे वन विकास निगम को हस्तांतरित कर दिया गया। यही वह बिंदु है जिसे खंडन में छुपा लिया गया।

स्थानीय लोगों का कहना है कि शासन ने वन विभाग को “सामान्य वनमंडल” और “वन विकास निगम” में बाँट रखा है, लेकिन आम नागरिक इन दोनों के फर्क से अनजान रहते हैं। जनता की नजर में दोनों ही “वन विभाग” हैं और वनभूमि भी एक ही है। सवाल यह उठता है कि जब निर्माण वन भूमि पर हुआ है, तो विभाग इससे पल्ला झाड़ कैसे सकता है?जमीन को निगम को सौंपकर जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना अधिकारियों के लिए आसान हो गया है।

ठीक वैसे ही जैसे पहले भी वन अधिकार कानून के दुरुपयोग, अतिक्रमण और वनों के अंधाधुंध विनाश पर आई खबरों को “भ्रामक” करार देकर दबाने की कोशिश की गई थी।ग्रामीणों का कहना है कि वन विभाग ने शब्दों के भंवरजाल में उलझाकर मामले की गंभीरता को कम करने का प्रयास किया है। यदि डीएफओ यह साफ करते कि जामुनपानी बस्ती वन विकास निगम के अधीन आती है, तो लोगों को वास्तविकता का अंदाजा लगता। इससे यह भी उजागर होता कि वन विकास निगम, जो वन संरक्षण का जिम्मेदार माना जाता है, अक्सर “वन विनाश” का पर्याय बन चुका है।मामला यह है कि वनभूमि पर निर्माण हो रहा है तो आखिर जिम्मेदारी किसकी होगी—वन विभाग की या वन विकास निगम की?

दोहरी व्यवस्था का यह खेल जनता को गुमराह करने और विभागीय जवाबदेही से बचने का सबसे बड़ा जरिया बन गया

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