ओटीटी पर आते ही छा जाएगी शिवम नायर निर्देशित जॉन अब्राहम की The Diplomat

52 साल के हो चुके जॉन अब्राहम लगातार अपने किरदारों के साथ प्रयोग कर रहे हैं। मसाला फिल्मों के मायाजाल में वह निखिल आडवाणी की ‘वेदा’ जैसी फिल्म करके अपना नुकसान भी बीच बीच में कर ले रहे हैं, लेकिन कहां ‘पठान’ का जिम और कहां ‘द डिप्लोमैट’ के जे पी सिंह।

जॉन की अपनी फिल्म ‘मद्रास कैफै’ को अगर उनकी अदाकार का पैमाना मानें तो फिल्म ‘द डिप्लोमैट’ फर्स्ट डिवीजन में पास है। और, इसका पूरा का पूरा श्रेय जिस एक इंसान को जाता है, वह हैं निर्देशक शिवम नायर। वही शिवम नायर जो काम बहुत अच्छा करते हैं, लेकिन अपनी ब्रांडिंग करने में अव्वल नंबर के फिसड्डी है। जिस अंदाज में उन्होंने वेब सीरीज ‘स्पेशल ऑप्स’ के भारत में फिल्माए गए दृश्यों का फिल्मांकन किया है, वह अलग स्तर की निर्देशकीय क्षमता है, वही रंग शिवम नायर इस बार फिर ले आए हैं अपनी नई फिल्म ‘द डिप्लोमैट’ में।

कहानी जानी पहचानी सी

फिल्म ‘द डिप्लोमैट’ की कहानी अब तक हर उस शख्स को पता चल चुकी होगी, जिसे हिंदी फिल्मों में जरा भी दिलचस्पी रहती है। ये उन दिनों की बात है जब सुषमा स्वराज विदेश मंत्री थी और दुनिया के किसी भी कोने में कोई भी भारतीय संकट में उनसे गुहार लगा दे तो वह गज और ग्राह की कहानी के नारायण की तरह नंगे पैर दौड़ पड़ती थीं। असली कहानी के इस फिल्मी संस्करण में वे सारी बातें हैं जो पहले अखबारों में और फिर फिल्म के प्रचार के दौरान जॉन और शिवम अपने इंटरव्यू में बता ही चुके है। मलयेशिया में रह रही एक भारतीय महिला अपने बच्चे के इलाज के लिए परेशान है। सोशल मीडिया पर वह पाकिस्तान के एक शख्स से मिलती है। उसके प्रेमजाल में वह पाकिस्तान जाती है और वहां पता चलता है कि उसका तथाकथित प्रेमी एक ‘फ्रॉड’ है। लेकिन, अब वहां से निकल पाना आसान नहीं। मामला जे पी सिंह तक पहुंचता है और आगे की कहानी क्या होनी है, सबको पता है।

लौट के जॉन कहानी पर आए

जॉन अब्राहम इस फिल्म में बतौर निर्माता भी शामिल हैं। ये हिस्सेदारी उनकी शायद फीस के बदले रही होगी। जॉन कोशिश तो करते हैं कि अच्छी फिल्में करें लेकिन उनकी टीम में इन दिनों उनको आगाह करने वाले लोग शायद कम होते जा रहे हैं। ‘बाटला हाउस’ के बाद जॉन अब्राहम की ये पहली समझदारी भरी कोशिश है अपने दर्शकों तक अपनी सही पहचान पहुंचाने की। जॉन को प्यार करने वाले दर्शकों की कमी नहीं है, बस हाल के बरसों में जॉन ‘पठान’ को छोड़कर बाकी की फिल्मों में अपने किरदारों में ये प्यार दोहरा नहीं पाए। इस बार उन्होंने कहानी सही पकड़ी हैं। फिल्म एक विशेष दर्शक वर्ग को लक्षित बायोपिक है और चूंकि इसमें पाकिस्तान विलेन नहीं है, लिहाजा इसका बॉक्स ऑफिस भविष्य बहुत उज्ज्वल नहीं भी हो सकता है, पर उनके खाते में एक अच्छी फिल्म इस बार जरूर जुड़ी है। जॉन ने खुद को जब भी नियंत्रित करके अभिनय किया है, उनका किरदार बोल उठा है।

शिवम नायर के लिए देखिए फिल्म

निर्देशक शिवम नायर को अपने निर्देशन के लिए इस फिल्म में सम्मान सहित उत्तीर्ण किया जा सकता है। उन्होंने ये फिल्म काफी सोच विचारकर और पूरी तैयारी के साथ बनाई है। इसके लिखने वाले रितेश शाह इतना ज्यादा लिख रहे हैं, इन दिनों की उनकी रचनात्मकता में दोहराव बनने ही बनने हैं। वह भावुक दृश्यों में भी अक्सर कमजोर पड़ते हैं। यहां ये दिक्कत सादिया खतीब के किरदार के साथ दिखती है। पाकिस्तान में फंसी उज्मा के अपने फर्जी प्रेमी के साथ सीन दर्शकों को रुला देने वाले होने चाहिए थे, लेकिन यहां भावनाओं का उफान ज्वार तक आ ही नहीं पाता है। रितेश के साथ एक दिक्कत मानवीय अंतर्द्वद्व के दृश्यों में भी दिखती है, एक तो वह ऐसे दृश्य लिखते ही कम हैं, ऊपर से फिल्म के हीरो जॉन अब्राहम के पास ऐसा कर दिखाने के रास्ते यहां उससे भी कम हैं।

ये हैं फिल्म की कमजोर कड़ियां

फिल्म ‘द डिप्लोमैट’ कोई महान फिल्म हो, ऐसी बात नहीं है लेकिन हां ये एक ऐसी फिल्म जरूर है जिसे फुर्सत से घर में बैठकर भी इत्मीनान से देखा जा सकता है। सिनेमाघरों में ही ये फिल्म क्यों देखी जानी चाहिए, ऐसा एक भी कारक फिल्म में इसे बनाने वालों ने रखा नहीं है। फिल्म चुस्त है। पटकथा दुरुस्त और संपादन में कुणाल वाल्वे की मेहनत भी दिखती है। दो घंटे 17 मिनट की इस फिल्म में दर्शकों को चौंकाने वाले तत्वों की कमी है। लेकिन, सब कुछ बहुत जाना पहचाना सा, देखा देखा सा लगता है और इन दिनों बस यही एक कारक फिल्म को कमजोर करने के लिए काफी होता है। इन दिनों दर्शक को सरप्राइज चाहिए। खून खून कर देने वाला सरप्राइज हो तो ‘एनिमल’ भी चलती है, ‘किल’ भी चलती है और ‘छावा’ भी। सरकटे का आतंक जैसा कुछ हो तो ‘स्त्री 2’ चल पड़ती है। माधवन को विलेन बना दो तो ‘शैतान’ भाग निकलता है। ‘द डिप्लोमैट’ में ऐसा कोई सरप्राइज एलीमेंट नहीं है। ऊपर से फिल्म के गाने भी बहुत शानदार नहीं बन सके हैं। मनोज मुंतशिर का लिखा ‘भारत’ उनके बंधे बंधाए खांचे से निकला गाना है। ‘नैना’ और ‘घर’ में अनुराग सैकिया की धुनें दिल में हूक उठाती हैं लेकिन उनका असर अभी और गहरा होना बाकी है। फिल्म का डिजिटल संस्करण इसकी रिलीज से पहले ही टेलीग्राम पर है, और ये इसके कारोबार पर संकट ला सकता है।

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